महाकाल की नगरी में मल्लखंब
महाकाल की नगरी में मल्लखंब
मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी, जहां भूतभावन महाकाल विराजे हैं, मल्लखंब कला प्रदर्शन को लेकर चर्चाओं में है. सोनी और कलर्स चैनल पर होने वाले टैलेंट शो के अंतर्गत यहां के खिलाड़ियों ने विश्व भर में इस खेल को नए आयाम दिए हैं. इसके चलते अब उज्जैन में मल्लखंब खेल अकादमी की स्थापना का निर्णय भी राज्य शासन ले चुका है. आज यह खेल कौशल किसी भी खेल की बुनियादी आवश्यकता के रूप में जगह बनाने लगा है. मल्लखंब खेल से शरीर इतना लचीला हो जाता है कि खिलाड़ी किसी भी खेल में स्वयं को दक्ष पाता है. मल्लखंब को संरक्षित करके प्रशासन ने सदियों पुरानी इस विधा को पुनर्जीवित करने का काम किया है. इस समय भारत के 29 राज्यों में मल्लखंब की पंजीकृत एसोसिएशन हैं, लेकिन प्रदेश के अलावा अन्य किसी राज्य ने इस खेल को संरक्षण प्रदान नहीं किया है.
मल्लखंब पर खिलाड़ियों द्वारा योगासन, जिम्नास्टिक और एक्रोबेटिक व्यायामों का प्रदर्शन किया जाता है. भारतीय मल्लखंब महासंघ की तकनीकी समिति के मानक की बात की जाए तो साधकों को मल्लखंब पर केवल 90 सेकेंड में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है. यानी चुस्ती, स्फूर्ति, एकाग्रता और चपलता का ऐसा खेल कोई दूसरा नहीं है.
मल्लखंब खेल को स्थापित करने में उज्जैन का नाम खेल मानचित्र पर त़ेजी से उभरा है. मल्लखंब ने यहां के सात खिलाड़ियों को जहां प्रदेश शासन के विक्रम अवार्ड से नवाज़ा है वहीं अन्य को एकलव्य अवार्ड मिला है. यह गौरव प्रदेश में केवल उज्जैन को ही प्राप्त है. इसे अब विदेशी खिलाड़ी इंडियन जिम्नास्टिक कहने लगे हैं. जापान का एक दल पिछले दिनों उज्जैन के मल्लखंब खिलाड़ियों का प्रदर्शन देखने आ चुका है. न्यास द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में प्रदेश के खेल मंत्री तुकोजीराव पवार तथा कैबिनेट मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने इन खिलाड़ियों को पुरस्कारों से भी नवाज़ा. राष्ट्रीय स्पर्धाओं से मल्लखंब खेल की तीन विधाओं का प्रदर्शन होता है. पहला स्थाई मल्लखंब, दूसरा हैगिंग मल्लखंब और तीसरा रोप मल्लखंब. खास बात यह है कि पुरुष खिलाड़ी जहां तीनों विधाओं में प्रदर्शन करते हैं वहीं महिला खिलाड़ी केवल रोप मल्लखंब का प्रदर्शन करती हैं. लकड़ी के एक खंबे पर आठ से नौ फुट की ऊंचाई पर कला का प्रदर्शन अपने आप में अनूठा है.
मल्लखंब सागवान या कालिये की लकड़ी का बना होता है. यह ज़मीन में क़रीब 90 सेंटीमीटर तक गड़ा होता है. वहीं हवा में इसकी ऊंचाई 280 सेंटीमीटर तक की होती है. निचला सिरा मोटा और ऊपरी सिरा गोलाई में पतला होता जाता है. सबसे ऊपर का हिस्सा वृत्ताकार होता है. इसके ठीक नीचे का क़रीब 20 सेंटीमीटरका हिस्सा मल्लखंब की शेष मोटाई से पतला होता है और इसे इसकी गर्दन कहा जाता है.
इसी मल्लखंब पर खिलाड़ियों द्वारा योगासन, जिम्नास्टिक और एक्रोबेटिक व्यायामों का प्रदर्शन किया जाता है. भारतीय मल्लखंब महासंघ की तकनीकी समिति के मानक की बात की जाए तो साधकों को मल्लखंब पर केवल 90 सेकेंड में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है. यानी चुस्ती, स्फूर्ति, एकाग्रता और चपलता का ऐसा खेल कोई दूसरा नहीं है.
यदि मल्लखंब का इतिहास देखा जाए तो बात द्वापर युग तक जाती है. श्रीकृष्ण के समय में भी इसके प्रमाण मिलें हैं. हैदराबाद के निजाम के यहां दो पहलवान अली और गुलाब थे जिन्होंने पूना जाकर वहां पेशवा के दरबार में बल प्रदर्शन किया था. पेशवा के आश्रय में रहने वाले बालभट्ट देवधर ने उनकी चुनौती स्वीकार की थी और देवी सप्तश्रृंगी का 21 दिन तक अनुष्ठान किया था. देवी ने प्रसन्न होकर साक्षात हनुमान जी ने दर्शन दिए और मार्गदर्शन दिया. हनुमानजी ने मल्लविद्या का प्रदर्शन किया, जिसे देवधर ने सीखा और उक्त दोनों पहलवानों को पराजित किया. वे ही मल्लखंब के प्रवर्तक बने. उन्हीं के शिष्य दामोदर गुरु मोघे जिन्हें पूरे देश में उज्जैन के अच्युतानंद स्वामी महाराज के नाम से जाना जाता है, ने मल्लखंब विधा को उज्जैन और पूरे प्रदेश में स्थापित किया. उन्हीं के नाम पर उज्जैन में व्यायामशाला है. उन्होंने 1970 में श्री अच्युतानंद प्रासादिक जीवाजीराव व्यायामशाला की स्थापना की जिस से सैकड़ों खिलाड़ी तैयार होकर निकलते रहे हैं
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